ब्रिटिश और पहाड़ी राज्य
अंग्रेजों ने पहाड़ी रियासतों से किये वादों का पूर्णतया पालन नहीं किया। उन्होंने पहाड़ी राजाओं को उनकी गद्दियाँ तो वापस दे दी लेकिन महत्त्वपूर्ण स्थानों पर अपना कब्जा बनाए रखा। अंग्रेजों ने उन रियासतों पर भी अपना कब्जा कर लिया जिनके राजवंश समाप्त हो गये या जिनमें उत्तराधिकारी के लिए झगड़ा था। पहाड़ी राजाओं को युद्ध खर्चे के तौर पर भारी धनराशि अंग्रेजों को देनी पड़ती थी।
अंग्रेजों ने ‘पलासी’ में 20 शिमला पहाड़ी राज्यों की बैठक बुलाई ताकि गोरखों से प्राप्त क्षेत्रों का बँटवारा किया जा सके। बिलासपुर, कोटखाई, भागल और बुशहर को 1815 से 1819 तक सनद प्रदान की गई। कुम्हारसेन, बाल्सन, थरोच, कुठार, मांगल, धामी को स्वतंत्र सनदें प्रदान की गई। सिखों के खतरे के कारण बहुत से राज्यों ने अंग्रेजों की शरण ली।

नूरपुर के राजा बीरसिंह ने शिमला और सबाथु छावनी (अंग्रेजों की) में शरण ली। बलबीर सेन मण्डी के राजा ने रणजीत सिंह के विरुद्ध मदद के लिए सबाधु के पोलिटिकल एजेंट कर्नल टप्प को पत्र लिखा। अनेक पहाड़ी राज्यों ने अंग्रेजों की सिखों के विरुद्ध मदद भी की। गुलेर के शमशेर सिंह, नूरपुर के बीरसिंह, कुटलहर के नारायण पाल ने सिखों को अपने इलाकों से खदेड़ा।

महाराजा रणजीत सिंह की मृत्यु के बाद तथा 9 मार्च, 1846 को हुई लाहौर सन्धि के बाद सतलुज और व्यास के क्षेत्रों पर अंग्रेजों का कब्जा हो गया। अंग्रेजों ने काँगड़ा, नूरपुर, गुलेर, जस्वान, दतारपुर, मण्डी, सुकेत, कुल्लू और लाहौल-स्पीति को 1846 ई. तक पूर्णतया अपने कब्जे में ले लिया।
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