Indian Political Thought | Kautilya

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भारत के मैकियावली चाणक्य या विष्णुगुप्त जैसे नामों से विभूषित इस महान् पं. कौटिल्य का जन्म बौद्ध ग्रन्थों और सामान्य मान्यतानुसार लगभग 400 ई. पूर्व तक्षशिला के ‘कुटिल’ नामक एक ब्राह्मण वंश में हुआ था।

कुटिल वंश में पैदा होने के कारण ही उन्हें कौटिल्य कहा जाता है। दूसरी ओर कुछ विद्वान् नेपाल की तराई और जैन ग्रन्थ मैसूर राज्य स्थित श्रवणबेलगोला को इनका जन्म स्थान मानते हैं। मुद्राराक्षस के रचयिता विशाखदत्त के अनुसार उनके पिता को चणक भी कहा जाता था, पिता के नाम के आधार पर ही उन्हें चाणक्य कहा जाने लगा।

कौटिल्य ने ही सर्वप्रथम राजनीतिशास्त्र को व्यवस्थित और धर्म से स्वतन्त्र रूप प्रदान किया जिस कारण उन्हें भारत का मैकियावली कहा जाता है क्योंकि मैकियावली ने इटली में वही काम किया जो भारत में कौटिल्य ने सम्पन्न किया। कौटिल्य की शिक्षा-दीक्षा प्रसिद्ध नालन्दा विश्वविद्यालय में हुई थी। अध्ययन के उपरान्त उन्होंने वहाँ अध्यापन कार्य करते हुए एक सफल, आदर्श शिक्षक की ख्याति प्राप्त की। परन्तु उस समय की कुछ सन्दर्भीय स्थिति ने उनके कार्य क्षेत्र में बदलाव ला दिया उस समय की दो घटनाएँ प्रमुख हैं

  1.  भारत पर सिकन्दर का आक्रमण और तात्कालिक छोटे-छोटे राज्यों की पराजय ।
  2.  मगध के शासक महापद्मनन्द द्वारा कौटिल्य का किया गया अपमान ।

कौटिल्य की महान् कृति अर्थशास्त्र

कौटिल्य का अर्थशास्त्र आने के पूर्व विद्वानों को यह विदित था कि कौटिल्य का कोई-न-कोई ग्रन्थ अवश्य है पर इसकी स्पष्ट जानकारी तब हुई जब सर्वप्रथम तंजौर के ब्राह्मण ने 1905 ई. में अर्थशास्त्र की हस्तलिखित पाण्डुलिपि मैसूर राज्य के प्राच्य पुस्तकालय में भेंट की। इन पाण्डुलिपियों को प्रथम संस्करण के रूप में 1909 ई. में एक ग्रन्थ के रूप में प्रकाशित किया गया। कौटिल्य की महान् कृति अर्थशास्त्र में पन्द्रह अधिकरण, एक सौ अस्सी प्रकरण, एक सौ पचास अध्याय और छह हजार श्लोक हैं। इस कृति में राजनीति, अर्थशास्त्र, इंजीनियरिंग-विद्या, रसायनशास्त्र, भूगर्भ विद्या तथा अनेक विषयों को समाहित किया गया है।

अर्थशास्त्र के अन्तर्गत राजनीतिक विचार

कौटिल्य का अर्थशास्त्र मूलतः राजनीतिक ग्रन्थ है। इसमें समस्त राजनीतिक विचारों को समाहित किया गया है। अर्थशास्त्र में उल्लिखित राजनीतिक विचार निम्नलिखित हैं।

राज्य की उत्पत्ति और स्वरूप

राज्य की उत्पत्ति के सम्बन्ध में कौटिल्य ने सामाजिक समझौते का सिद्धान्त स्वीकार किया है। उन्होंने स्पष्ट किया कि राज्य से पूर्व समाज में मत्स्य न्याय की स्थिति थी। इस व्यवस्था से तंग होकर लोगों ने मनु को अपना राजा स्वीकार किया। राजा को लोग अपनी आय या अन्न का कुछ भाग कर के रूप में दिया करते थे। इस कर के बदले में राजा उनकी सुरक्षा की समुचित व्यवस्था करता था। इस प्रकार राज्य की उत्पत्ति एक सामाजिक समझौते का सिद्धान्त थी।

कौटिल्य के अनुसार राज्य का उद्देश्य

कौटिल्य के अनुसार, राज्य का उद्देश्य व्यक्ति को उसके पूर्ण विकास की सहायता करना है। अच्छा राज्य न केवल शान्ति व्यवस्था और सुरक्षा बनाए रखने पर आधारित होता है बल्कि स्वस्थ और सुदृढ़ अर्थव्यवस्था पर आधारित होता है। कौटिल्य के अनुसार राज्य का भूमि क्षेत्र इतना हो कि वह निवासियों की आवश्यकताओं की पूर्ति कर सके और उनकी शत्रुओं से रक्षा कर सके। कौटिल्य के अनुसार राज्यों के प्रकार

1. द्वैराज्य 2. वैराज्य 3. संघ राज्य

सप्तांग सिद्धान्त

इस सवाल का उत्तर ढूँढना बहुत ही कठिन है कि राज्य का उदय या राज्य के विचार की अवधारणा क्यों आई, पर इतना जरूर कहा जा सकता है कि उस समय के सन्दर्भ में होने वाली अव्यवस्था और हिंसा जैसी स्थिति ने किसी ऐसी शक्ति की आवश्यकता महसूस की, जो एक आदर्शपूर्ण स्थिति, जो सुख, शान्ति, व्यवस्था आदि को बनाने में सहायक हो ऐसी शक्ति को राज्य शक्ति के रूप में देखा जाने लगा।

इस व्यवस्था को बनाने में तमाम सामाजिक व्यवस्थापकों या विद्वानों ने अपने-अपने मत व्यक्त किए, जिनमें मनु, भीष्म और शुक्र ने राज्य की कल्पना एक जीवित शरीर के रूप में की।

शुक्रनीति में राज्य के इन अंगों को मानव शरीर से तुलना करते हुए कहा गया है-

इस शरीर रूपी राज्य में राजा सिर के समान है, अमात्य आँख है, सुहृत कान है, कोष मुख है, बल मन है, दुर्ग हाथ हैं और राष्ट्र पैर है।”

जिस प्रकार कौटिल्य से पूर्व के विद्वान् राज्य को आंगिक या सावयवी मानकर अपने विचारों को प्रतिपादित करते हैं ठीक उसी तरह कौटिल्य भी राज्य की उत्पत्ति के सम्बन्ध में संविदा सिद्धान्त को मानते हुए राज्य के सात अंगों को स्वीकार करते हैं जिनको वह प्रकृति की संज्ञा देते हैं।

राज्य के सात अंगों के कारण ही राज्य की प्रकृति के सम्बन्ध में कौटिल्य का सिद्धान्त सप्तांग सिद्धान्त कहलाता है। कौटिल्य ने अर्थशास्त्र के छठे अधिकरण के पहले अध्याय में राज्य के सात अंगों या प्रकृतियों का निम्नलिखित रूप से उल्लेख किया है

Indian Political Thought | Kautilya

1. स्वामी  2. अमात्य 3. जनपद 4. दुर्ग  5. कोष  6. दण्ड 7. मित्र 

स्वामी या राजा

कौटिल्य राजतन्त्र के समर्थक थे। चूंकि ऐसे तन्त्र में राजा के ही चारों और सम्पूर्ण शक्तियाँ घूमती हैं इसलिए राजा पर विशेष ध्यान देने के तहत उसकी शिक्षा, उसके गुणों, उसकी दिनचर्या, उसकी शक्तियों तथा कार्यों के अतिरिक्त उसकी निरंकुशता पर प्रतिबन्ध के साथ-साथ उसके सतर्क रहने सम्बन्धी सुझाव को भी ध्यान में रखा जाता है।

राजा के गुण

राजा के गुण निम्नलिखित हैं

• राजा को कुलीन होना चाहिए

• राजा स्वस्थ और शास्त्र का अनुसरण करने वाला होना चाहिए

• राजा को देवबुद्धि, धैर्य सम्पन्न, दूरदर्शी, धार्मिक सत्यवादी, सत्यप्रतिज्ञ कृतज्ञ, उच्चाभिलाषी, अत्यधिक उत्साही, शीघ्र कार्य करने वाला, सामन्तों को वश में करने वाला, दृढ़-बुद्धि गुणसम्पन्न परिवार वाला और शास्त्र बुद्धि से युक्त होना चाहिए।

• राजा को निर्भीक, शास्त्रज्ञाता, संयमी, बलवान, काम-क्रोध, लोभ-मोह- चपलता-चापलूसी से मुक्त हँसमुख, उदारभाषी और वृद्धजनों के उपदेशों का अनुगामी होना चाहिए

राजा की शिक्षा

उक्त गुणों की प्राप्ति के लिए कौटिल्य ने शिक्षा को अनिवार्य माना है क्योंकि सभी गुणों का राजा में होना आवश्यक नहीं है, अतः कुछ गुण उसमें जन्म से होंगे और कुछ गुणों को शिक्षा के माध्यम से अभ्यास के द्वारा धारण कर सकेगा। कौटिल्य के शब्दों में, “जिस प्रकार घुन लगी हुई लकड़ी शीघ्र नष्ट हो जाती है, उसी प्रकार जिस राजकुल के राजकुमार शिक्षित नहीं होते, वह राजकुल बिना किसी युद्ध आदि के स्वयं ही नष्ट हो जाता है। राजकुमार को कब शिक्षा दी जाए इस पर कौटिल्य कहते हैं कि बालक का जब मुण्डन संस्कार हो जाए तो उसे वर्णमाला और अंकमाला का अभ्यास कराया जाए। उपनयन के बाद उसे नई, आंविक्षिकी वार्ता और दण्डनीति का ज्ञान कराया जाए।

राजा की दिनचर्या कौटिल्य ने अपने अर्थशास्त्र के पहले अधिकरण में राजा की दिनचर्या पर विशेष जोर दिया है ताकि राजा अपनी प्रजा को आदर्श राज्य प्रदान कर सके। कौटिल्य ने उक्त वर्गीकरण दिन और रात में किया है। इसे 1 घण्टा 30 मिनट के अनुसार प्रत्येक प्रहर को बाँटा है ताकि दिन-रात के आठों भागों के अनुसार राजा की दिनचर्या निर्धारित की जा सके जिससे राजकार्य को व्यवस्थित ढंग से संचालित किया जा सके।

राजा की शक्तियाँ तथा कार्य

प्रजा का कल्याण राजा और प्रजा के मध्य पिता और पुत्र जैसा सम्बन्ध होना चाहिए। कौटिल्य कहता है “प्रजा के सुख में राजा का सुख और प्रजा के हित में राजा का हित है। अपने-आपको अच्छे लगने वाले कार्यों को करने में राजा का हित नहीं, बल्कि उसका हित तो प्रजाजनों को अच्छे लगने वाले कार्यों को सम्पादन करने में है।”

शान्ति और व्यवस्था बनाए रखना

राजा को इन्द्र के समान प्रजा पर अनुग्रह और यम के समान दुष्टों का नाश करना चाहिए।

नियुक्ति सम्बन्धी कार्य

राजा को सभी कर्मचारियों के कार्यों का निरीक्षण और योग्य कर्मचारियों की पदोन्नति करनी चाहिए। चूंकि राजा के द्वारा ही अमात्य, सेनापति और प्रमुख कर्मचारियों की नियुक्ति होती है।

विधि-निर्माण कार्य

राजा धर्म, व्यवहार, चरित्र और राज्य प्रशासन के आधार पर कानून का निर्माण करता है।

न्यायिक कार्य

राजा राज्य का न्यायाधीश माना जाता है। वह विभिन्न न्यायालयों की स्थापना करता है। राज्य में प्रचलित विधियों के अनुसार ही वह निर्णय देता है। यह निर्णय धर्म, लोकाचार, व्यवहार और न्याय पर आधृत होना चाहिए।

कौटिल्य के अनुसार राजा का स्वरूप

कौटिल्य राजा को सर्वोच्च स्थिति प्रदान करता है लेकिन उसका राजा निरंकुश नहीं है। राजा को नियन्त्रित रखने के लिए उस पर कुछ प्रतिबन्ध हैं

1. राजा की शक्ति पर प्रथम प्रतिबन्ध अनुबन्धवाद का था। राजा के सभी आदेशों का पालन प्रजा को करना पड़ता था जिसके बदले राजा अपनी प्रजा के धन-जन की रक्षा करता था।

2. राजा पर दूसरा प्रतिबन्ध धार्मिक नियमों और रीति-रिवाजों का था। राजा की अधिकार धर्म और रीति-रिवाजों से सीमित थे और वह इनका पालन करने के लिए बाध्य था ।

3. राजा की शक्ति पर तीसरा प्रतिबन्ध मन्त्रिपरिषद् का था। उसके अनुसार राज्यरूपी रथ के दो चक्र राजा और मन्त्रिपरिषद् हैं, इसलिए मन्त्रिपरिषद् का अधिकार राजा के बराबर ही है मन्त्रिपरिषद् राजा की शक्ति पर नियन्त्रण रखती है।

4. कौटिल्य ने राजा की निरंकुशता पर अत्यन्त प्रभावशाली प्रतिबन्ध राजा के व्यक्तित्व तथा उसकी शिक्षा के आधार पर लगाया है। उसके अनुसार सर्वगुण सम्पन्न राजा अपने स्वभाव से निरंकुश नहीं हो सकता

अमात्य

कौटिल्य के अनुसार, अमात्य का अर्थ मन्त्री और प्रशासनिक अधिकारी दोनों से है। अमात्य राज्य का दूसरा महत्त्वपूर्ण अंग है जिसको नियुक्ति करते समय राजा को उसी व्यक्ति का चयन करना चाहिए जो गर्म, अर्थ, काम और भय द्वारा परीक्षित हो और उसकी कार्यक्षमता के अनुसार कार्यभार सौंपा जाना चाहिए। कौटिल्य इसकी महत्ता बताते हुए कहते हैं कि, “एक पहिए की गाड़ी की भाँति राज-काज भी बिना सहायता सहयोग से नहीं चलाया जा सकता। इसलिए राजा को चाहिए कि वह सुयोग्य अपात्यों की नियुक्ति कर उनके परामर्शो को हृदयंगम करे।”

जनपद

कौटिल्य ने राज्य के तीसरे अंग के रूप में जनपद को स्वीकारा है। जनपद का अर्थ है ‘जनयुक्त भूमि’ आधुनिक राज्य के तत्व में जनसंख्या और भू-भाग को अनिवार्य रूप से शामिल किया जाता है पर कौटिल्य ने इन दोनों के मिश्रण को जनपद की संज्ञा दी है। कौटिल्य का मत है “मनुष्यों से रहित प्रदेश जनपद नहीं कहला सकता और जनपदरहित भूमि राज्य नहीं कहला सकती। अतएव यदि जनपद न होगा तो राज्य द्वारा शासन किस पर किया जाएगा

” जनपद के संघटन के सम्बन्ध में कौटिल्य का विचार

“आठ सौ गांवों के बीच में एक स्थानीय, चार सौ गांवों के समूह में एक द्रोणमुख, दौ सो गाँवों के बीच में एक सार्वत्रिक और दस गाँवों के समूह में संग्रहण नामक स्थानों की विशेष रूप से स्थापना होनी चाहिए।”

कौटिल्य ने जनपद के निम्न गुणों का उल्लेख किया “जनपद की स्थापना ऐसी होनी चाहिए कि जिसके बीच में तथा सीमान्तों में किले बने हों, जिसमें यथेष्ट अन्न पैदा होता हो, जिसमें विपत्ति के समय वन पर्वतों के द्वारा आत्मत्क्षा की जा सके, जिसमे थोड़े श्रम से ही अधिक धान पैदा हो सके, जो नदी, तालाब, वन, खानों से युक्त हो, जहाँ के किसान बड़े मेहनती हो और जहाँ प्रेमी एवं शुद्ध स्वाभावो वाले लोग बसते हो, इन गुणों से युक्त देश जनपद सम्पन्न कहा जाता है।”

दुर्ग

अर्थशास्त्र के अनुसार दुर्ग राज्य के प्रति रक्षात्मक शक्ति तथा आक्रमण शक्ति दोनों का प्रतीक माना जाता है।

दुगों के प्रकार

औदिक दुर्ग – इस दुर्ग के चारों ओर पानी भरा होता है।

पार्वत दुर्ग – इसके चारों ओर पर्वत या चट्टाने होती है।

धान्वन दुर्ग – इसके चारों ओर ऊसर भूमि होती है जहाँ न तो जल और नही घास होती है।

बन दुर्ग – इसके चारों और वन, दलदल आदि पाए जाते है

कोष

राज्य के संचालन, दूसरे देश से युद्ध करने और प्राकृतिक या मानवीय आपदा से बाहर निकलने के लिए कोष का बहुत ही महत्त्वपूर्ण स्थान है, कौटिल्य ने भी इस महत्ता को स्वीकार किया और कहा है कि धर्म, अर्थ और काम इन तीनों से ये अर्थ सबसे ज्यादा महत्त्वपूर्ण है या इन दोनों का आधार स्तम्भ है। कौटिल्य ने अपने अर्थशास्त्र में प्रजा से कर किस प्रतिशत में लिया जाए उसका उल्लेख किया है। जिसमें प्रथा से अनाज का छठा, व्यापार से दसवाँ और पशुओं के व्यापार के लाभ का पचास भाग लिया जाना चाहिए।

कोष के गुण पर अपना मत प्रकट करते हुए कौटिल्य कहते हैं “राजकोष ऐसा होना चाहिए जिसमें पूर्वजों की तथा अपने धर्म की कमाई संचित हो, इस प्रकार कोष धान्य, सुवर्ण, चाँदी, नाना प्रकार के बहुमूल्य रत्न तथा हिरण्य से भरा-पूरा हो, जो दुर्भिक्ष एवं आपत्ति के समय सारी प्रजा की रक्षा कर सके। इन गुणों से युक्त खजाना कोष सम्पन्न कहलाता है

दण्ड या सेना

कौटिल्य के अनुसार, दण्ड से आशय सेना से है। सेना राज्य की सुरक्षा की प्रतीक मानी जाती है। सेना को कौटिल्य ने चार श्रेणियों में बाँटा है

1. हस्ति सेना 2. अश्वसेना 3. रथ-सेना 4. पैदल सेना

उक्त सेनाओं में हस्ति सेना को कौटिल्य सर्वश्रेष्ठ सेना मानते हैं और सेना पर अपने वक्तव्य देते हैं कि

“सेना ऐसी होनी चाहिए जिसमें वंशानुगत स्थायी एवं वंश में रहने वाले सैनिक भर्ती हों, जिनके स्त्री-पुत्र राजवृत्ति को पाकर पूरी तरह सन्तुष्ट हों। युद्ध के समय जिसको आवश्यक सामग्री से लैस किया जा सके, जो कभी भी हार न खाता हो, दुःख को सहने वाला हो, युद्ध कौशल से परिचित हो, हर तरह के युद्ध में निपुण हो, राजा के लाभ तथा हानि में हिस्सेदार हो और जिसमें क्षत्रियों की अधिकता हो। इन गुणों से युक्त सेना दण्ड सम्पन्न कही जाती है।”

मित्र

कौटिल्य के अनुसार, “राज्य की प्रगति के लिए और आपत्ति के समय राज्य की सहायता के लिए मित्रों की आवश्यकता होती है। इस पर कौटिल्य कहते हैं मित्र ऐसा होना चाहिए, जो वंश परम्परागत हो, स्थायी हो, अपने वंश में रह सके, जिनसे विरोध की सम्भावना न हो, प्रभुमन्त्र, उत्साह आदि शक्तियों से युक्त तथा जो समय आने पर सहायता कर सके। मित्रों में इन गुणों का होना मित्र सम्पन्न कहा जाता है

वैदेशिक सम्बन्ध,

राजनीतिक विचारक के रूप में कौटिल्य ने न केवल राज्य के आन्तरिक प्रशासन के सिद्धान्तों का वर्णन किया है। उसके अनुसार एक राज्य द्वारा दूसरे राज्यों के साथ अपने सम्बन्ध निर्धारित किए जाने चाहिए। उसने विदेशों में राजदूत और गुप्तचर रखने के विषय पर भी विचार किया है। कौटिल्य ने दूसरे राज्यों के साथ व्यवहार सम्बन्ध में दो सिद्धान्तों का विवेचन किया— पड़ोसी राज्यों के साथ सम्बन्ध स्थापित करने के लिए मण्डल सिद्धान्त और अन्य राज्यों के साथ व्यवहार निश्चित करने के लिए 6 लक्षणों वाली षाड्गुण्य नीति ।

मण्डल सिद्धान्त

अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में कौटिल्य की सबसे बड़ी देन मण्डल सिद्धान्त और षाड्गुण्य नीति है। उसने पड़ोसी राज्यों के लिए मण्डल सिद्धान्त का प्रतिपादन और षाड्गुण्य नीति अर्थात् छह लक्षणों वाली नीति का प्रतिपादन कौटिल्य ने विदेशी राज्यों के सन्दर्भ में किया। मण्डल का अर्थ राज्यों का वृत्त माना जाता है। इस वृत्त में कौटिल्य ने 12 राज्यों को शामिल किया है। इस वृत्त के केन्द्र में राजा होता है जो अपने पड़ोसी राज्यों को जीतकर अपने राज्य में मिलाने का प्रयास करता है क्योंकि मानवीय स्वभाव के अनुसार प्रत्येक राजा राज्य विस्तार का नीति अपनाता है।

कौटिल्य के शब्दों में, “विजिगीषु राजा की विजय यात्रा में क्रमशः शत्रु ( अरि), मित्र, अरिमित्र, मित्र – मित्र और अरिमित्र – मित्र ये पाँच प्रकार के राजा आते हैं। इसी प्रकार उसके पीछे क्रमशः पार्ष्णिग्राह, आक्रन्द, पार्ष्णिग्राहासार और आक्रन्दासार ये चार राजा होते हैं। विजिगीषु राजा सहित आगे-पीछे के राजाओं को मिलाकर एक राजमण्डल कहलाता है।

” मण्डल में बारह राज्यों का उल्लेख किया जा सकता है।

विजिगीषु – इसका स्थान मण्डल के बीच में होता है और यह अपने राज्य के विस्तार की आकांक्षा रखता है।

अरि – विजिगीषु के सामने वाला राज्य उसका शत्रु होता है।

मित्र – अरि के सामने वाला राज्य मित्र अरि का शत्रु और विजिगीषु का मित्र होता है।

अरिमित्र – मित्र के सामने वाला राज्य अरिमित्र होगा, ये अरि का मित्र और विजिगीषु का शत्रु होगा।

मित्र- मित्र अरिमित्र के सामने होने के कारण ये उसका शत्रु होगा पर मित्र राज्य का मित्र होने के कारण ये राज्य विजिगीषु का मित्र होगा।

अरिमित्र मित्र -मित्र मित्र के सामने वाला राज्य अरिमित्र-मित्र कहलाता है क्योंकि अरिमित्र राज्य का मित्र होता है और इसलिए अरि राज्य के साथ भी उसका सम्बन्ध मैत्रीपूर्ण होता है।

पार्ष्णिग्राह – ये विजिगीषु के पीछे का राज्य होगा। अरि की तरह वह भी विजिगीषु का शत्रु ही होता है।

आक्रन्द – ये पार्ष्णिग्राह के पीछे का राज्य होगा जो विजिगीषु का मित्र होगा।

पार्ष्णिग्राहासार – ये राज्य आक्रन्द के पीछे होगा ये राज्य पार्ष्णिग्राह का मित्र होता है।

आकन्दासार – ये पार्ष्णिग्राहासार के पीछे होगा और आक्रन्द का मित्र होता है।

मध्यम – ये प्रदेश विजिगीषु और अरि राज्य की सीमा से लगा होगा। ये दोनों से अधिक शक्ति शाली होगा, जिससे ये दोनों से अलग-अलग मुकाबला करने के साथ-साथ दोनों की सहायता भी करता है।

उदासीन – इसका प्रदेश विजिगीषु, अरि और मध्यम इन तीनों राज्यों की सीमाओं से अलग होता है। ये राज्य बहुत शक्तिशाली होता है जो सहायता या मुकाबला दोनों स्थिति में होता है।

षाड्गुण्य नीति

छह लक्षणों वाली पाड्गुण्य नीति के द्वारा कौटिल्य ने अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों में, जिसमें परराष्ट्र नीति या विदेश नीति को, जिसे अपने राष्ट्र के हित के अनुकूल परिवर्तित किया जा सके। इस नीति का समर्थन मनु ने भी किया है और इसका वर्णन महाभारत में भी मिलता है विदेश नीति पर आचार्य वातव्याधि का मत है कि विदेश नीति के निर्धारण में दो गुण सन्धि और विग्रह है बाकी चार गुण (यान, आसन, संश्रय और द्वैधीभाव) इस नीति के बाकी पहलू हैं पर कौटिल्य ने इन छः गुणों को विदेश नीति के आधार के रूप में वर्णन किया है।

कौटिल्य ने षाड्गुण्य नीति के प्रयोग पर अपने विचार व्यक्त किए हैं- ” शत्रु की तुलना में अपने को निर्बल समझने पर सन्धि कर लेनी चाहिए यदि शत्रु की तुलना में स्वयं को बलवान समझा जाए तो विग्रह कर देना चाहिए।” यदि शत्रु बल और आत्मबल में कोई अन्तर न समझे तो आसन को अपना लेना चाहिए। यदि स्वयं को सर्व सम्पन्न और शक्ति सम्पन्न समझे तो चढ़ाई कर देनी चाहिए। यदि स्वयं को निरा अशक्त समझने पर संश्रय से काम लेना चाहिए। यदि सहायता की अपेक्षा समझे तो द्वैधीभाव को अपनाना चाहिए।

कौटिल्य की षाड्गुण्य नीति का वर्णन

सन्धि

सन्धि से आशय दो राजाओं के बीच हुआ समझौता, ये समझौता एक राजा को लाभ करा सकता है, हानि करा सकता है या दोनों को बराबर का लाभ या हानि करा सकता है। इस प्रकार कौटिल्य अपने राजा को सन्धि के लिए तब सुझाव देता है जब दूसरे राजा के कार्य को रोक सके या उसके कार्यों से अपना लाभ प्राप्त कर सके या उसे विश्वास में लेकर उसे समाप्त कर सके

कौटिल्य के अनुसार सन्धि के निम्नलिखित प्रकार हैं .

हीन सन्धि

भूमि सन्धि

अनवसित सन्धि .

सम-विषम सन्धि आदि

दण्डोपनत सन्धि .

कर्म सन्धि

अति सन्धि

विग्रह या युद्ध

विग्रह का अर्थ युद्ध से लगाया जाता है। कौटिल्य ने अपने राजा को युद्ध करने का सुझाव तभी दिया है जब वह शत्रु से सबल हो । कौटिल्य ने तो यह भी सुझाव दिया है कि अगर युद्ध से जो लाभ प्राप्त होना है, अगर सन्धि से लाभ की प्राप्ति हो जाती है तो विग्रह को टालने का प्रयास किया जाना चाहिए ताकि धन और जन दोनों की हानि से बचा जा सके

कौटिल्य ने अपने दर्शन में बताया है कि युद्ध के लिए सेना, युद्ध के लिए शक्तियाँ और युद्ध के प्रकार को जानकर ही विग्रह किया जाना चाहिए। कौटिल्य ने सेना के चार अंग बताए है

1. पैदल 2. हाथी 3. घोड़े 4. रथ

इन अंगों में सर्वाधिक महत्त्व हाथी या हस्ति बल को दिया है। कौटिल्य ने युद्ध की तीन शक्तियों का भी उल्लेख किया है, जिनसे उत्साह, शक्ति अर्थात् सफल युद्ध के लिए आवश्यक नैतिक बल, प्रभाव शक्ति अर्थात् शस्त्र सामग्री, मन्त्र शक्ति अर्थात् मन्त्रणा और कूट नीति शक्ति से है।

युद्धों के प्रकार

कौटिल्य के अनुसार, युद्ध के तीन प्रकार निम्न हैं

प्रकाश युद्ध – देश या काल के निश्चित होने पर की गई घोषणा ।

कूट युद्ध – योजना में तत्काल परिवर्तन करके, धोखा देकर, भय दिखाकर आदि तरीकों से किया गया युद्ध ।

तुष्णी युद्ध – इस प्रकार का युद्ध शत्रु को विश्वास में लेकर उसे जहर पिलाकर वेश्याओं के साथ लिप्त कराकर आदि तरीकों से किया गया युद्ध

कौटिल्य ने राजाओं को भी तीन भागों में उनकी प्रवृत्ति के अनुसार बाँटा है; जैसे

धर्म विजयी – ऐसा राजा गौरव और प्रतिज्ञा पाकर ही सन्तुष्ट हो पाता है।

लोभ विजयी – ऐसा राजा लोभ की प्राप्ति, धन या भूमि की प्राप्ति के उपरान्त सन्तुष्ट हो जाता है।

असुर विजयी – ऐसा राजा धन, भूमि के साथ स्त्री, पुत्र की प्राप्ति करने के उपरान्त ही सन्तुष्ट होता है।

कौटिल्य ने राजाओं की उक्त श्रेणी में धर्म विजयी राजा को श्रेष्ठ माना है।

यान-  कौटिल्य ने विग्रह में स्पष्ट किया है कि अगर बिना युद्ध के काम चल जाए तो विग्रह से बचना चाहिए, पर यान में ऐसा नहीं है इसका अर्थ ही है वास्तविक युद्ध | कौटिल्य के शब्दों में, “यदि समझें कि शत्रु के कर्मों का नाश यान से हो सकेगा और मैंने अपने कर्मों की रक्षा का पूरा प्रबन्ध कर दिया है तो यान का आश्रय लेकर अपनी उन्नति करें

” कौटिल्य का विचार है कि यान किन परिस्थितियों में किया जाना चाहिए-

“जब देखें कि शत्रु व्यसनों में फँसा है, उसका प्रकृतिप्रमुख मण्डल भी व्यसनों में उलझा है। अपनी सेनाओं से पीड़ित उसकी प्रजा उससे विरक्त हो गई, राजा स्वयं उत्साहहीन है, प्रकृतिमण्डल में परस्पर कलह है, उसको लोभ देकर फोड़ा जा सकता है, शत्रु, अग्नि, जल, व्याधि, संक्रामक रोग के कारण वह अपने वाहन कर्मचारी और कोष की रक्षा न कर सकने के कारण क्षीण हो चुका है तो ऐसी दशाओं में विरह करके चढ़ाई कर दें।”

आसन -आसन से आशय तटस्थता है। इसके अर्थ से आशय यह है कि राजा अपनी स्थिति को मजबूत करने के लिए कुछ समय के लिए इन्तजार स्वरूप बैठा रहे। कौटिल्य ने आसन के दो प्रकार बताए हैं

विग्रहा आसन-  विजिगीषु और शत्रु समान शक्ति रखते हो, सन्धि की इच्छा रखते हों, कुछ समय के लिए चुपचाप बैठ जाते हैं।

सन्धाय आसन- जब सन्धि करके चुप बैठते हैं।

संश्रय-  इसका अर्थ है बलवान राजा की शरण लेना शरण में उस राजा के पास जाना चाहिए जो शत्रु से बलवान हो।

कौटिल्य का मत है “यदि ऐसा बलवान राजा कोई न मिले तो अपने शत्रु राजा का ही आश्रय लेना चाहिए।”

द्वैधीभाव- द्वैधीभाव से आशय है दोहरे भाव के साथ व्यवहार का किया जाना, जिसमें एक राजा के साथ सन्धि और दूसरे से विग्रह, अतः कौटिल्य बताते हैं कि सन्धि बलवान से और विग्रह निर्बल से करनी चाहिए। कौटिल्य ने विदेश नीति के निर्धारण में छः तत्त्वों के अलावा चार उपायों की चर्चा की है

निर्बल राजा के साथ उपाय – साम दुर्बल राजा को शान्तिपूर्वक समझा-बुझा दिया जाना चाहिए। दाम या कुछ धन देकर अपने पक्ष में किया जाना चाहिए।

बलवान राजा के साथ उपाय

दण्ड -जब तीनों उपाय सार्थक न हों तब दण्ड का सहारा लेना चाहिए।

भेद -शक्तिशाली शत्रु से विजय न पाने की स्थिति में फूट डालनी चाहिए ताकि उसकी शक्ति क्षीण हो सके।

गुप्तचर व्यवस्था

राजदर्शन में कौटिल्य को प्रथम दार्शनिक कहा जा सकता है जिसने गुप्तचरों का प्रयोग सरकार के लिए आवश्यक अंग के रूप में किया है। अगर देखा जाए तो प्राचीनकाल से गुप्तचरों का उल्लेख हमें प्राप्त होता है जो राज्य की आन्तरिक क्रियाओं और बाह्य रूप से होने वाली अप्रत्याशित घटना के घटित होने के पूर्व ही सूचित करके जन और धन की होने वाली क्षति से बचाने में अपनी भूमिका का निर्वाह करते थे।

स्थायी गुप्तचर

ऐसे गुप्तचरों को कौटिल्य ने पाँच श्रेणियों में विभक्त किया

• कापटिक गुप्तचर – विद्यार्थी की वेशभूषा में रहने वाला और दूसरों के रहस्यों को जानने वाला गुप्तचर कापटिक कहलाता है। यह गुप्तचर राज्य से धन, यान और सत्कार प्राप्त करके राज्य की सेवा करता है।

उदास्थित गुप्तचर –  ऐसे गुप्तचर संन्यासी के वेष में रहते हैं और उसी में स्थान में रहकरे राज्य का काम करते हैं जहाँ उन्हें कृषि, पशुपालन एवं व्यापार के लिए भूमि नियुक्त की जाती है।

गृहपति गुप्तचर – ये भी उदास्थित गुप्तचर की भाँति कार्य करता है जहाँ इसे कृषि, पशुपालन एवं व्यापार के लिए भूमि का आवण्टन किया जाता है पर इसका भेष एक गरीब किसान का होता है।

वैदेहक गुप्तचर – ये भी उदास्थित गुप्तचर की भाँति काम करता है पर इसका भेष एक गरीब व्यापारी का होता है। तापस गुप्तचर ऐसा गुप्तचर का भेष तपस्वी, भविष्यवक्ता और लौकिक शक्तियों से सम्पन्नता का होता है। ये गुप्तचर अपनी मण्डली के साथ स्थानीय लोगों के भेदों को जानने का प्रयास करते हैं।

भ्रमणशील गुप्तचर –  भ्रमणशील गुप्तचर का काम भ्रमण करते हुए सूचना को एकत्रित करना होता है। ऐसे गुप्तचर का उपनाम संचार गुप्तचर भी है। कौटिल्य ने भ्रमणशील गुप्तचर को चार श्रेणियों में बाँटा है

स्त्री गुप्तचर – ऐसे गुप्तचर जो विभिन्न कलाओं से युक्त हों; जैसे- नाचने-गाने, ज्योतिष, सामुद्रिक विधा, वशीकरण, इन्द्रजाल आदि ।

तीक्ष्ण गुप्तचर –  ऐसे गुप्तचर जो धन की लालसा में कठिन से कठिन काम करने के लिए प्रसिद्ध होते हैं।

रसद गुप्तचर – कठोर हृदय वाले, आलसी स्वभाव वाले ऐसे व्यक्ति जो राजा के कहने पर शत्रु को जहर देने में भी निर्दयी भाव रखते हैं।

परिब्राजिका गुप्तचर – संन्यासी के वेश में खुफिया का काम करने वाली गुप्तचरी जो दरिद्र, ब्राह्मणी, रनिवास में सम्मानित गुप्तचरी परिब्राजिका कहलाती है।

कौटिल्य ने मुण्डा और वृषली आदि नारी गुप्तचरियों का उल्लेख किया है। कौटिल्य ने इनके अलावा भी राज्य में उभय वेतनभोगी और विषकन्या गुप्तचर का उल्लेख किया है।

उभय वेतनभोगी – उभय वेतनभोगी गुप्तचर राजा का सेवक होते हुए विदेशी राज्य से जाकर दूसरे राजा के यहाँ नौकरी करता है और उसी से वेतन भी लेता है पर वफादारी अपने राज्य के राजा के प्रति निभाता है।

विषकन्या इस कन्या को पहले राज्य में विष का पान करा – कराकर तैयार किया जाता है, फिर शत्रु राजा के साथ इसको यौन सम्बन्ध के लिए भेजा जाता है। ऐसी स्थिति में शत्रु स्वतः ही तड़प-तड़प कर मर जाता है।

कौटिल्य के धार्मिक विचार

कौटिल्य ने अपने अर्थशास्त्र में कहीं भी अधिकरण या अध्याय में धर्म सम्बन्धी विचारों का उल्लेख नहीं किया है, पर पूरे अर्थशास्त्र में धर्म को कुछ-कुछ अंश के रूप में बिखेर रखा है। कौटिल्य ने धर्म का प्रयोग तीन अर्थों में किया है

सामाजिक कर्त्तव्य के रूप में-  कौटिल्य कहते हैं कि एक राजा को धर्मनिष्ट होना चाहिए क्योंकि राजा से ही प्रजा को अनुकरण की प्रवृत्ति आती है । अगर राजा, संन्यासी या प्रजा कोई भी अपने धर्म का पालन नहीं करता है तो उसे धर्म के मार्ग में लाने के लिए दण्ड का प्रयोग किया जाना चाहिए। कौटिल्य के अनुसार पवित्र आर्य मर्यादा में अवस्थित, वर्णाश्रम धर्म में नियमित और त्रयी धर्म से रक्षित प्रजा दुःखी नहीं होती, सदा सुखी रहती है।

नैतिक कानून के रूप में – कौटिल्य ने धर्म का प्रयोग नैतिक कानून रूप में किया है और कहा है कि धर्मपूर्वक प्रजा पर शासन करना ही राजा का निजी धर्म है। वही उसको स्वर्ग ले जाता है।

नागरिक कानून के रूप में – धर्म का प्रयोग नागरिक कानून के रूप में करते हैं। इन कानूनों की व्याख्या करने वाले न्यायाधीशों को धर्मस्थ की संज्ञा दी गई है।

राजा और राज्य के सम्बन्ध

इस सम्बन्ध में कौटिल्य ने राजा को प्रधानता प्रदान की है। अपने वक्तव्य में जैसे “राजा ही पूज्य व्यक्तियों का सम्मान और दुष्ट व्यक्तियों का निग्रह कर सकता है वही अपने राजयोग्य गुणों से अपनी अमात्य प्रकृति को गुण सम्पन्न बना सकता है, क्योंकि राजा स्वयं जिस स्वभाव का होता है, उसकी प्रकृतियाँ भी वैसे ही स्वभाव की हो जाती हैं।

राजा पर ही उसकी प्रकृतियों का अभ्युदय एवं पतन निर्भर होता है, क्योंकि सातों प्रकार की प्रकृतियों में राजा ही प्रधान होता है। इसलिए मूल प्रकृति राजा का जैसा स्वभाव हो उसकी विकृतियों का भी वैसा ही स्वभाव होता है। “

कौटिल्य तथा मैकियावली में असमानता

ग्रन्थ की रचना – अर्थशास्त्र सफल राजनीतिज्ञ होने के बाद लिखी गई जबकि प्रिन्स मैकियावली के निराशा के समय लिखी गई ।

अर्थशास्त्र एवं प्रिन्स प्रिन्स – राजनीति पर आधारित है पर अर्थशास्त्र कई विषयों को समेटे हुए है।

धर्म का आदर – राज्य का शासन धर्म के अनुसार कौटिल्य करने को कहता पर मैकियावली धर्म विरोधी

राजतन्त्र – मैकियावली गणतन्त्र के भी समर्थक थे जबकि कौटिल्य राजतन्त्र के समर्थक थे।

राजा – मैकियावली का राजा बेइमान, स्वार्थी, धूर्त और अधार्मिक है। जबकि कौटिल्य का राजा सच्चरित्र, गुणवान, बुद्धिमान और कठोर दिनचर्या का पालन करने वाला है।

न्याय, कानून, दण्ड – इस पर कौटिल्य ने अपने ग्रन्थ में विस्तार से वर्णन किया है पर मैकियावली ने इसकी उपेक्षा की है।

राजदूत- कौटिल्य ने राजदूत का उल्लेख किया है,  पर मैकियावली ने इसकी उपेक्षा की है।

कौटिल्य तथा मैकियावली में समानता

कौटिल्य

मैकियावली

राजतन्त्र का समर्थक 

• राज्य की एकता

• युद्ध आवश्यक  

• व्यावहारिक राजनीति 

• शान्ति और सुरक्षा शक्ति द्वारा स्थापित .

• गुप्तचर व्यवस्था

• मानव स्वभाव

• राजा सम्प्रभु

• राज्य का विस्तार

• ऐतिहासिक उदाहरण 

• पड़ोसी राष्ट्र शत्रु

• विदेशी राज्य पर आधिपत्य 

• नैतिकता की उपेक्षा

विदेश नीति – मैकियावली राजा तक ही सीमित रह जाता है पर कौटिल्य ने मण्डल सिद्धान्त और षाड्गुण्य नीति के द्वारा एक कदम और आगे बढ़ा दिया।

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